प्रणय

प्रणय
प्रणय

Wednesday, 24 August 2016



                                                                    मैं अश्क़ पी जाता हूँ 
मैं  अँधेरे में कभी महफ़िल सजाता हूँ ,
यादों में, कल्पनाओं में खुशियां मनाता हूँ ,
अज़ीब है तरीका ये पर क्या करूँ ,
मुझे अब आदत सी है खुशियां यूँ ही मनाने की ,
दुनिया को शायद निर्द्वन्द हंसी ये चुभती है ,
इसलिए यूँ ही मैं  हसीं अपनी छुपाता हूँ ,
पता नही क्यों ये भीड़ मुझे डराती है ,
भेड़  की खाल में भेड़िये  सी नज़र आती है ,
हो सकता है मैं पूरा गलत हूँ ,
पर अनुभवों में मेरे कुछ तो बात है ,
न चाहकर भी मैं हँस लेता हूँ ,\
कुछ घूट गम के यूँ ही छुपा के पी लेता हूँ ,
क्योंकि मानो या ना मानो ,
मैंने देखा है लोगों को दूसरों के गमो में हँसते ,
मैंने देखा है मैय्यत के पीछे महफ़िलें सजते ,
अरे वो कैसी माँ थी हँस रही थी गैर के बेटे के मरने  पर ,
कैसा वो मित्र था,जो हँसा था मित्र की बर्बादी पर ,
ऐसे ही मज़बूर नही हूँ इस दुनिया से दूरी बनाने में ,
गम को छुपाने में और अश्कों को पी जाने में । 

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                                         कल्पित चेहरा 
तसव्वुर में मैंने एक चेहरा बनाया,
रब सा नहीं उससे कहीं अच्छा बनाया,
जैसे परियों की कहानी में प्यारी सी रानी,
उसे ऐसा मैंने सपनो में सजाया ,
रोज़ वो मिलती है अपनी बातें कहती,
प्यार के बोल के अलावा एक बोल न बोलती,
गुलाब सी महक है बदन में उसके ,
कोयल के मीठे स्वर से बोल उसके ,
होंठ  जैसे  गुलाब के फूल हैं ,
आँखों में जैसे कोई कहानी है ,
बालों में जैसे पतवन सा समां ,
अंगड़ाईयों में बीती बातें पुरानी हैं,
चाल में उसके लहरों सा  बहाव है ,
बातों में गहरे उतार व चढ़ाव है ,
बैठने में उसके किसी मूरत सा अदब है,
कहानी उसकी परियों का कथन हैं ,
 झपकती आंखें दास्तां का एक पड़ाव है,
निहारना मुझे उसका जैसे कोई इतिल्ला है,
बाहों में आना भी उसकी एक कला है ,
रश्मि सी चमक खुलती आँखों में है ,
कुछ तो बात गज़ब उसकी निगाहों में है,
कल्पना है बस यही एक खलती बात है ,
असलियत नहीं बस परियों की एक जमात है|










Monday, 22 August 2016



                                                         आँखें वो रोती हैं
यादें बहुत गहरी होंगी , शायद चुभती होंगी ,
या फिर मलाल होगा कुछ , तभी आँखें वो रोती  हैं ।

रिश्ता शायद  वो अनकहा था , या फिर अधूरा था,
पूरा न हो पाया था या फिर होकर टूटा था , तभी आंखें वो रोती  हैं ।

 कुछ सपने थे, खुली आँखों से देखे होंगे , पुरे न हो पाए होंगे ,
या फिर किसी की ख़ुशी की खातिर खुद तोड़े होंगे , तभी आँखें वो रोती हैं ।

परिवार था  शायद वो भरा पूरा , हस्ते खेलते लोग होंगे ,
छूट पीछे गया होगा सब, या हुई होगी कोई घटना , तभी आँखें वो रोती हैं ।

बच्चे होंगे प्यारे से , गोद में अठखेलियां करते होंगे,
शायद रिश्ते टूटे होंगे ,तभी आँखें वो रोती  हैं ।

कुछ उम्मीदें होंगी और देखे कुछ सपने होंगे ,
एकाएक टूटे होंगे या परिस्थितियों ने तोड़े होंगे , तभी आंखें वो रोती  हैं ।

आज हड्डियां बूढी हैं, कभी जवां रही होंगी ,
आज निराशा  घेरे है, कभी आशावान रही होगी , तभी आँखें वो रोती हैं।

पहले बहुत बोलती थी , हंसी मजाक करती थी ,
आज वह रूह कांपती सी है,चाहकर भी न हँसती  है ,तभी आँखें वो  रोती हैं ।








Tuesday, 16 August 2016

मेरे मुल्क में ईमान बिकता है ,
जिसने जना है वो भी बिकता है,
शहीदों का तमगा बिकता है ,
पुस्तैनी मकान बिकता है |
देश के लिए कौड़ी भी न दी हो जिसने ,
तोड़ने इस मुल्क को कौड़ियों के भाव बिकता है,
जंग-ए-आज़ादी में जिनके घर का कुत्ता भी न मरा ,
खानदान वो आजादी को दाग लगाने बिकता है |
भले अखबारों में करते रहे वो बड़ी बड़ी बातें ,
सहाफी वो आतंकी के दर पर बिकता है ,
उठते बैठते ऐसे हैं जैसे हाजी हों ,
हाजी भी वो नापाक इरादों को अंजाम देने बिकता है |

Monday, 15 August 2016

                                      

                            
                   आजादी और इंक़लाब     

मसर्रते आजादी में खुश क्यों हो ?
अवामे मजलूम में दुखी क्यूँ हो ?
अश्क ही हैं बहने दो तुम इतने ग़मगीन क्यों हो ?
किस्से उस रोते तिफ्ल के सुनने को मुंतजीर क्यूँ हो ?

हुकूमत ही तो है, दर्द-ए-अहद  है, तुम ऐसे पड़े क्यों हो ?
हमारे वालीदों की गुस्ताखियों का यही सिला था, तुम खुद को कोसते क्यों हो ?
अब इस समय का सामना करो , तुम इससे रुख्सत क्यूँ हो ?
एजाज़ कुछ यूँ ही न हो जायेगा, तुम मदीने सफ़र में क्यूँ हो ?

बादशाहत नही की तलवार से न्याय हो, अदालत से दूर खड़े क्यूँ हो ?
सीधा नहीं खम है रास्ता , तुम चलो इसपर डरते  क्यूँ हो ?
आज फिर इंक़लाब की जरुरत है, तुम नमाज़ अदायगी में मुतमईन क्यूँ हो ?
कफ़न बाँध लो सर पर चलते हैं , अमीरे शहर छोड़ो , अमीरी के आदतन क्यूँ हो ?

अलम ले चलो एक पुकार की फिर , गूंगे से यूँ खड़े क्यूँ हो ?
पतवार लो मंझधार से जंग करो , कश्ती-ए-साहिल से क्यूँ हो ?
तुम्हे इस वतन का वास्ता , हिम्मत लो सहमी हुई रूह से क्यूँ हों ?
शोला जो शिथिल हुआ, आग उसमे भरो, तुम तकाबुल में क्यूँ हो ?


ये शहीदों की जमीन है , तुम ऐसे मक्कारों से क्यूँ हो ?
पुकारा मादरे वतन ने तुम्हे , तुम ऐसे बुझदिल से क्यूँ हो ?
लो बुराइयों से इंतकाम , मंजिल से इतने दूर क्यूँ हो ?
सरफ़रोश हो , वजारत के सितम से भयभीत क्यूँ हो ?


Saturday, 13 August 2016


                                                       

                                                                 
 
                                                                  मेरे सवाल और वो चिट्ठी

सवाल मेरे , मेरे दरम्यान ही रह जाएँ ,
जवाब मेरे सवालों के कभी ना आएं ।

डर है मंजिल नहीं नाकामी होगी ,
मोहब्बत पर हामी नहीं रुखाई होगी ।

जवाब भी कहाँ तू खुलकर दे पाएगी ,
लोगों की तरेरती नज़रों  से डर  जायेगी ।

सवाल मेरे यूँ ही बिना जवाब रह जायेंगे ,
पर बार बार जहन में यह चिल्लायेंगे ।

सुलगती आग यह  कहीं बुत जायेगी ,
यह चिट्ठी जब  दोबारा न लौटकर आएगी ।

बेहतर है  जिल्लत  मेरी  होने से  बच  जाए ,
भेजी हुई चिट्ठी  अपनी राह ही भटक जाये  ।

पर  लगता  है  कभी  तू  सवालों का जवाब दे ,
न सही इस जालिम दुनिया में , रूहानी दुनिया में मेरा साथ दे ।

सवाल  मेरे  और वो चिट्ठी  अधूरी कहानी रह जायेगी ,
पर मेरे और तेरे अकेलेपन में याद जरूर आएगी ।

हो सकता है तू इस अधूरेपन  को कल्पनाओ में पूर्ण करे ,
 जो हो ना पाया इस जग जीवन में उसे सपनो से  संपूर्ण करे


आज कुछ  सवाल मन  में लिए यूँ  ही  सो जाता हूँ ,
शायद किरणे सुबह की कुछ जवाब दें , ये आशा करता हूँ ।

                                                                                                 - प्रणय

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Tuesday, 9 August 2016




चौखट बन्द पड़ी थी 

कभी ठण्ड में , माँ जहाँ बैठकर गर्म कपडे बुनती थी ,
जगह वो आज सूनी थी , और चौखट बंद पड़ी थी |

इच्छा बहुत थी छत में जाकर बैठने की पुरानी यादें सहेजने की ,
पर सीढ़ियों पर अनचाहे पेड़ उगे थे और चौखट बंद पड़ी थी|

दो कमरों का वह मकान .चहलकदमी जहाँ मैंने करी थी ,
लालसा थी कमरों को देखने की , पर चौखट बंद पड़ी थी |

उस घर के पीछे से जाता वो खेत का रास्ता ,
दौड़ जाना चाहता था वहां को मै पर चौखट बंद पड़ी थी|

किताबें और कहानियाँ जहाँ बैठकर मैंने पढ़ी थी .
अहसास वह फिर करना था मुझको पर चौखट बंद पड़ी थी |

छज्जे पर बैठकर देखे थे कई द्शहरों के मेले मैंने ,
सोचा वहीँ बैठकर गलियाँ निहारूं पर चौखट बंद पड़ी थी |

जहाँ मेरे प्रभु श्री राम की मूर्ति खडी थी ,
शीष  वहां झुकाना चाहता था पर चौखट बंद पड़ी थी |

जहाँ पर खटिया बाबा की मेरे रखी थी ,
आराम की चाह थी मुझको पर चौखट बंद पड़ी थी |

आँगन पर सिलबट्टा था जहाँ धनिया मिर्च पीसी जाती थी ,
वही बैठना था सुकून से मुझको पर चौखट बंद पड़ी थी |

गलियारा वह , जहाँ मेरी बदमाशियों पर मेरी माँ हँसी थी ,
फिरसे देखना था मुझे वो हस्ता चेहरा पर चौखट बंद पड़ी थी |

                                                -----प्रणय 


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