प्रणय

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Wednesday, 26 October 2016



दो घाटों का गहरा भेद

पूजक खड़े किनारों पर
जीवन की आरती करते
निरंतरता को नमन करते
माँ गंगा का जाप करते

दश्श्व्मेध का अद्भुत दृश्य
गंगा का ममतामयी स्पर्श
जैसे जीवन का जीवंत मेला हो
खुशियों का जहाँ रेला हो

दीप जले थाल पर
आरती गान का ऊँचा स्वर
वैदिक पौराणिक मंत्रोच्चार
कलकल करती गंगा उच्चार

कुछ घाट के बाद ही
कुछ चलने के बाद ही
मणिकर्णिका पहुंचा एक मृत तन
कुछ अजीब सा कहने लगा मेरा मन

एक घाट जीवन स्वरुप
दूसरा घाट काल का रूप
एक घाट माँ स्वरुप
दुसरे घाट का निर्मम रूप  

घंटों की आवाज़ स्पष्ट
मन्त्रों का स्वर स्पष्ट
शंख का नाद स्पष्ट
पर लपटें न करती आवाज़

ना आवाज़ न पुकार
न मंत्र न उद्गार
ना ही शंख रहा चित्कार
सिर्फ लपटें रहीं ललकार

देह पड़े निर्जीव जहाँ
जलता दिवंगत जीव जहाँ  
दिख रहा न कोई दृश्य वहां
सत मृत्यु की चंद लिपटें वहां

गंगा के कूल किनारों से
मानवता गयी हिम तराई तक
संभावनाओं की तलाश में 
कुछ  पाने की आश में


लौट किनारे को आई
मानवता की छाप वहां
सोचो अपने संग क्या लाई
सफ़ेद चादर में लिपटी  आई

दो घाटों का देखो गहरा भेद
एक जीवन तो दूसरा मृत्यु संदेश
एक प्रारम्भ दूसरा इति है
जीवन दर्शन , अस्सी घाट यही है
                                                                    ----pranay

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