दो घाटों का गहरा भेद
पूजक खड़े किनारों पर
जीवन की आरती करते
निरंतरता को नमन
करते
माँ गंगा का जाप
करते
दश्श्व्मेध का
अद्भुत दृश्य
गंगा का ममतामयी
स्पर्श
जैसे जीवन का जीवंत
मेला हो
खुशियों का जहाँ
रेला हो
दीप जले थाल पर
आरती गान का ऊँचा
स्वर
वैदिक पौराणिक
मंत्रोच्चार
कलकल करती गंगा
उच्चार
कुछ घाट के बाद ही
कुछ चलने के बाद ही
मणिकर्णिका पहुंचा
एक मृत तन
कुछ अजीब सा कहने
लगा मेरा मन
एक घाट जीवन स्वरुप
दूसरा घाट काल का
रूप
एक घाट माँ स्वरुप
दुसरे घाट का निर्मम
रूप
घंटों की आवाज़
स्पष्ट
मन्त्रों का स्वर
स्पष्ट
शंख का नाद
स्पष्ट
पर लपटें न करती
आवाज़
ना आवाज़ न पुकार
न मंत्र न उद्गार
ना ही शंख रहा
चित्कार
सिर्फ लपटें रहीं
ललकार
देह पड़े निर्जीव
जहाँ
जलता दिवंगत जीव
जहाँ
दिख रहा न कोई दृश्य
वहां
सत मृत्यु की चंद
लिपटें वहां
गंगा के कूल किनारों
से
मानवता गयी हिम तराई
तक
संभावनाओं की तलाश
में
कुछ पाने की आश में
लौट किनारे को आई
मानवता की छाप वहां
सोचो अपने संग क्या
लाई
सफ़ेद चादर में लिपटी
आई
दो घाटों का देखो
गहरा भेद
एक जीवन तो दूसरा
मृत्यु संदेश
एक प्रारम्भ दूसरा
इति है
जीवन दर्शन , अस्सी
घाट यही है
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bohot hi umdaaa!
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