पानी की बूँद
खिड़की के कांच में पानी की बूंद ,
पुरानी गली लकड़ी में लगी फफूंद ,
पानी के कारण नज़ारा धुंधला है ,
देखना धुंधलेपन में मेरी भी एक कला है |
बुँदे कांच में खिसकती हैं ,
समय सी एक नहीं रहती हैं ,
कुछ बुँदे निशाँ बन जाती हैं ,
वही पड़े पड़े सूख जाती हैं |
बाकी बूंदो की तरह वो क्यों न बही ,
क्यूँ रूकावटे वो ऐसे सहीं ,
की रूककर वहीँ निशान हो गयी,
कांच में अनचाही मेहमान हो गयी ।
उस बूंद को बह जाना था ,
बारिश की कहानी कह जाना था ,
रूककर उसने ऐसा निशान दिया ,
जैसे कोई अहसान किया ।
अरे! पगली तेरे ये निशान पुछ जायेंगे ,
बनने चली थी अमिट निशानी ,
एक पोछ में मिट जायेंगे ,
बह जाती तो अच्छा होता,
न जिल्लत होती न अनचाहा निशान होता ।
=======================================