प्रणय

प्रणय
प्रणय

Monday, 19 September 2016

तू  कहीं  से  भी  लेजा   कहीं  से  भी    मुझे    जाना पड़े
ऐसे सितम न कर की मेरे यार को मुझसे  दूर  जाना पड़े

तू शाख  काट ले पर थोड़ा सोचना
कहीं इन परिंदो को दूर न जाना पड़े

मुझे  तेरी  महफ़िल  में शरीक  होना  गवारा है
पर ऐसी गुस्ताखी न करना कि वहां से जाना पड़े

कुछ ही पल मयस्सर हैं दिल्लगी को हमारे
कल कहीं इस मुसाफिर को दूर न जाना पड़े

आज देखने दे जिस्म के इन नज़ारों को
कल कहीं नज़ारों से रुखसत हो जाना न पड़े

तुम्हे जाना है तो जाओ मेरी मिलकियत से
फिर   कहीं   कल  तुम्हे  पछताना  न  पड़े

नाम मेरा आज बदनाम है इन गलियारों में
कल कहीं इन गलियारों को शर्माना न पड़े

आज  नज़रअंदाज  किया  गया  पर मंज़ूर  है
कल कहीं मेरे दरबार में तुम्हे गिड़गिड़ाना न पड़े