प्रणय

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Wednesday, 31 August 2016



                                                                       पानी की बूँद 

खिड़की  के कांच  में पानी की बूंद ,
पुरानी गली लकड़ी में लगी फफूंद ,
पानी के कारण नज़ारा धुंधला है ,
देखना धुंधलेपन में मेरी भी एक कला है |

बुँदे कांच में खिसकती हैं ,
समय सी एक नहीं रहती हैं  ,
कुछ बुँदे निशाँ बन जाती हैं ,
वही पड़े पड़े सूख जाती हैं |

बाकी बूंदो की तरह वो क्यों न बही ,
क्यूँ रूकावटे वो ऐसे सहीं ,
की रूककर वहीँ निशान हो गयी,
कांच में अनचाही मेहमान हो गयी ।

उस बूंद को बह जाना था ,
बारिश की कहानी कह जाना था ,
रूककर उसने ऐसा निशान दिया ,
जैसे कोई अहसान किया ।

अरे! पगली तेरे ये निशान पुछ जायेंगे ,
बनने चली थी अमिट निशानी ,
एक पोछ में मिट जायेंगे ,
बह जाती तो अच्छा होता,
न जिल्लत होती न अनचाहा निशान होता ।

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