प्रणय

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Friday, 2 September 2016



                                                  ताक रही आज भी एक कुर्सी है 


लहलहाती फसलों को देख ,
करती उनकी देखरेख,
जीवन उसका गुजर गया ।

जिन सुनहली फसलों ने ,
कर दी  पैदा थी चमक ,
उसकी आँखों में ,
आज फसल की जगह ,
खड़ी एक इमारत है ।

किसान का बेटा अन्यत्र गया ,
छोड़ किसानी कहीं दूर गया ,
कोई न ताक रहा है उसको ,
पर ताक रही एक कुर्सी है ।

जिसमे बैठता निहारता उसका बाप था ,
फसलों को देखता वो बार बार था ,
घर में ख़ुशी -सम्रद्धि लाता था ,
पर उसके बेटे को ये धंधा न भाता था  ।

लुट गयी जमीन कर्ज में आके ,
न कर पाया किसानी बुढापे में आके ,
अब कोई न ताकता उसकी फसल आके ,
पर ताक रही आज भी एक कुर्सी है ।

कई साल बाद कोई वहां आया ,
दौड़ा-दौड़ा बापू चिल्लाया ,
पता चला किसान का लड़का आया,
आज कोई न ताक रहा उसको ,
न ही जान रहा है उसको ,
पर ताक रही आज भी एक कुर्सी है ।

सुनाने वो ये खबर था आया ,
बन कृषी वैज्ञानिक था वो आया ,
बापू का आशीर्वाद लेने था आया ,
किसी को न देख वो सकपकाया ।

कोई न उसको पहचान रहा ,
न कोई उसको जान रहा ,
कोई उसकी राह न ताक रहा ,
पर ताक रही आज भी एक कुर्सी है । 

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