प्रणय

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Monday, 15 August 2016

                                      

                            
                   आजादी और इंक़लाब     

मसर्रते आजादी में खुश क्यों हो ?
अवामे मजलूम में दुखी क्यूँ हो ?
अश्क ही हैं बहने दो तुम इतने ग़मगीन क्यों हो ?
किस्से उस रोते तिफ्ल के सुनने को मुंतजीर क्यूँ हो ?

हुकूमत ही तो है, दर्द-ए-अहद  है, तुम ऐसे पड़े क्यों हो ?
हमारे वालीदों की गुस्ताखियों का यही सिला था, तुम खुद को कोसते क्यों हो ?
अब इस समय का सामना करो , तुम इससे रुख्सत क्यूँ हो ?
एजाज़ कुछ यूँ ही न हो जायेगा, तुम मदीने सफ़र में क्यूँ हो ?

बादशाहत नही की तलवार से न्याय हो, अदालत से दूर खड़े क्यूँ हो ?
सीधा नहीं खम है रास्ता , तुम चलो इसपर डरते  क्यूँ हो ?
आज फिर इंक़लाब की जरुरत है, तुम नमाज़ अदायगी में मुतमईन क्यूँ हो ?
कफ़न बाँध लो सर पर चलते हैं , अमीरे शहर छोड़ो , अमीरी के आदतन क्यूँ हो ?

अलम ले चलो एक पुकार की फिर , गूंगे से यूँ खड़े क्यूँ हो ?
पतवार लो मंझधार से जंग करो , कश्ती-ए-साहिल से क्यूँ हो ?
तुम्हे इस वतन का वास्ता , हिम्मत लो सहमी हुई रूह से क्यूँ हों ?
शोला जो शिथिल हुआ, आग उसमे भरो, तुम तकाबुल में क्यूँ हो ?


ये शहीदों की जमीन है , तुम ऐसे मक्कारों से क्यूँ हो ?
पुकारा मादरे वतन ने तुम्हे , तुम ऐसे बुझदिल से क्यूँ हो ?
लो बुराइयों से इंतकाम , मंजिल से इतने दूर क्यूँ हो ?
सरफ़रोश हो , वजारत के सितम से भयभीत क्यूँ हो ?


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