प्रणय

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प्रणय

Wednesday, 24 August 2016



                                                                    मैं अश्क़ पी जाता हूँ 
मैं  अँधेरे में कभी महफ़िल सजाता हूँ ,
यादों में, कल्पनाओं में खुशियां मनाता हूँ ,
अज़ीब है तरीका ये पर क्या करूँ ,
मुझे अब आदत सी है खुशियां यूँ ही मनाने की ,
दुनिया को शायद निर्द्वन्द हंसी ये चुभती है ,
इसलिए यूँ ही मैं  हसीं अपनी छुपाता हूँ ,
पता नही क्यों ये भीड़ मुझे डराती है ,
भेड़  की खाल में भेड़िये  सी नज़र आती है ,
हो सकता है मैं पूरा गलत हूँ ,
पर अनुभवों में मेरे कुछ तो बात है ,
न चाहकर भी मैं हँस लेता हूँ ,\
कुछ घूट गम के यूँ ही छुपा के पी लेता हूँ ,
क्योंकि मानो या ना मानो ,
मैंने देखा है लोगों को दूसरों के गमो में हँसते ,
मैंने देखा है मैय्यत के पीछे महफ़िलें सजते ,
अरे वो कैसी माँ थी हँस रही थी गैर के बेटे के मरने  पर ,
कैसा वो मित्र था,जो हँसा था मित्र की बर्बादी पर ,
ऐसे ही मज़बूर नही हूँ इस दुनिया से दूरी बनाने में ,
गम को छुपाने में और अश्कों को पी जाने में । 

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