प्रणय

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Wednesday, 1 June 2016

मजदूर हूँ  मै

ये जो तुम मोहक  अतिमनभावन बागान देख रहे,
ताजे फुल पत्तियां  खून पसीने से इन्हें सींचा हूँ |

गगन को चीरती अनंत  इमारतें देखो ,
दिनों नहीं मिला था वेतन मुझे इसे बनाने में |  

विश्वविद्यालयों की गौरवशाली इमारतें देखो ,
अनपढ़ हूँ पर हाथ है मेरा हर  नौजवां को पढ़ाने में |

देखो जो राजसी रौशन बरात जगमगाती जा रही,
अँधेरा था बारात में मेरी, पर रौशन दूसरे का सफ़र किया हूँ|

जिस ताजमहल को देख तुम्हारी आँखें हैं फटी रह जाती ,
हाथ कटते थे मेरे, जब उकेरी इसकी मीनारें थी जाती |

देखो आज क़ुतुब है ऊँचा , तान सीना खड़ा गौरवशाली ,
गिर कर उससे मरा था मै,चढ तुमने जहाँ से दुनिया निहारी |

देखो महानगर के पाताल में जाते गहरे नाले ,
उतरकर मैंने दूषित होकर साफ़ इन्हें कर हैं डाले |


जंगलो से जाते, पहाड़ो को चीरते देखो यह रास्ते दुर्गम,
मैंने सुनी थी जंगली आवाजें, झेली अतिवृष्टि अतिनिर्मम |

देखो अरब में बुर्ज के करीब समंदर में नया जहाँ बसाया,
कागजात जब्त थे मेरे , देश न वापस मै आ पाया |

देखो हज़ारो सालों से वह मज़बूत जो महल खड़े ,
हथौड़े, छेनी के लाखों वार इस पर हैं मेरे पड़े |

राजमहल का एक कमरा भी नहीं नसीब है मुझको,
कांचों की दीवारें गढ़ने हाथ कटाने पड़े थे मुझको |

यूँ तो खुश जीवन से हूँ पर थोडा धक्का लग जाता है,
पूरा काम करता हूँ तन से ,फिर भी वेतन जब कम आता है |

ऐसा ही कठिन जीवन है मेरा , मजबूर हूँ मै ,
नहीं अपेक्षा स्वर्ण मोहरों की मुझको , मजदूर हूँ मै|
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--------प्रणय 




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